प्रेम जीवन का विशुद्ध रस । प्रेम माधुरी जी का सान्निध्य जंहा अमृत के प्याले पिलाए जाते है ।प्रेम माधुर्य वेबसाइट से हमारा प्रयास है कि इस से एक संवेदना जागृत हो ।

Monday, February 20

प्रेमी



भगवत्प्रेमी कभी संसारके भोगोकी आसक्तिमें नहीफंसता,किसीभी प्राणी-पदार्थ मेंममता नहीकरता,किसीभी सुखकी कमानानहिकरता औरअपने अशुद्धअंहकार कोभगवत्प्रेम में विलीन करके भगवत्सेवातथा भगवत्प्रेमस्वरुप  बन जाता है| इसलिए वहजगत जगतके बंधनसे सर्वथामुक्त होजाता हैतथा अपनीसारी आसक्तिएवं सम्पूर्णममता कोभगवन मेंलगा करउन्हें विशुद्धप्रेमस्वरूप ममता के रज्जु सेबांध लेताहै | उसकावह प्रेमशरीर कीमृत्यु केसाथ मरतानही,वह मुक्तिके साथमुक्त होजाता है| वह नित्यजीवन बनारह करअन्नत कालतक उतरोतर बढ़ता रहता है,उसका कहीअंत नहीहोता है|ऐसे ही प्रेमीजनोकी प्रेमरसका मधुरआस्वादन करने के लिए परम प्रेमास्पद भगवान अपना प्रेममय स्वरुप सदा सुरक्षित रहता है |रखते है तथा प्रेमियों के प्रेमास्पद बने और उनको अपना प्रेमास्पद बनाये नित्य-नव मधुर लीलाव के रूप में प्रकट होकर लीला-विलास करते रहते है |व्रज की एक महाभावरुपा श्यामसुंदर की प्रेम-मूर्ति महाभागा गोपांगना उद्गार है –
होय पद-कंज-प्रीती स्वच्छंद |
करत रहै रसपान नित्य मम-मधुकर मकरंद ||
हनी-लाभ,निंदा-स्तुति,अति अपमान महा सनमान |
प्रेम-पगे जीवन में इन कौ रहै न कछु मन भान ||
रसना रटै नाम प्रिय पिय कौ, हिय हो लीलाधाम |
परसै प्रभु के अंग अंग दृग निरखै रूप ललाम ||
मिटे मोह-तम, जनम-मरन की रहै  न कछु परवाह |
पल-पल बाढै प्रीती अहैतुक, पल-पल रस की चाह ||
डर न रहै परलोक-लोक कौ , बढे प्रेम अबाध |
जनम-जनम मै बनौ रहै तव पवन प्रेम अगाध ||
मिटिबे,घटिबे , थामिबे कौ नहि होय कबहू संकल्प |
उमगत रहै प्रेम-रस-सरिता प्रतिपल बिना बिकल्प ||
कहू लोक मै , कहू जाय जाऊ जीव करम आधीन |
बसौ रहै पिय-प्रेम-सरित मै, जिमि जल-सरिता मीन ||
चाहौ न दुरलभ इन्द्र-ब्रहम-पद, चहौ न गति निरबान |
प्रीतम-पद-पंकज मै अनुदिन बाढै प्रेम महान ||
नरक-प्राप्ति नीची गति तै मै डरौ न रंचक मान |
रहौ प्रेम-मद मै मतवारी, तज मति कौ अभिमान || 

वह कहती है-"मेरी श्रीश्यामसुन्दर के चरणकमलो में स्वच्छंद प्रीती हो जाय |मेरा मन रूपी भ्रमर चरणकमलो के मकरंद-रस का निरंतर पान करता रहे | मेरे प्रेम-परिपूर्ण जीवन में सांसारिक हानि -लाभ, निंदा-स्तुति, घोर अपमान और महान सम्मान का कुछ भान ही न रहे | मेरी जिव्हा प्रियतम के नाम को रटती रहे ; मेरा ह्रदय उनकी लीला का धाम ही बन जाय-सदा-सर्वदा उसमे श्रीश्यामसुन्दर की लीला चलती रहे ; मेरे समस्त अंग प्रभु के अंगो का सुख-स्पर्श-सौभाग्य प्राप्त करते रहे और मेरी आंखे उनके ललित  रूप-सौन्दर्य को देखती रहे | मेरे मोह का सारा अंधकार मिट जाय ; अतएव जन्म-मृत्यु की कुछ परवा न रहे | पल पल में अहैतुक प्रेम बढ़ता रहे और पल पल में रस की चाह बढ़ती  रहे | लोक-परलोक का - इस लोक के बिगड़ने का या  परलोक की दुर्गति का कोई भय न रहे  | हर  अवस्था  में प्रेम का बाधारहित  होकर बढ़ता रहे ; कितने  ही जन्म हो, प्रत्येक  जन्म में तुम्हारा  अगाध विशुद्ध प्रेम बना रहे | उस  पवित्र  प्रेम के कभी मिटने , कम  होने  या रुकने  की कल्पना   ही न हो | प्रेम की वह नदी प्रतिपल बिना विकल्प के उमड़ती ही रहे | यह जीव किसी भी लोक में , कही भी किसी भी योनी में जाय सदा प्रियतम की प्रेम नदी में ही नदी जल में मछली की भांति बसा रहे | जैसे मछली जल के बिना क्षणभर  भी नहीं रह सकती वैसे ही प्रियतम के प्रेम बिना क्षणभर न रहे | बुद्धि का सारा अभिमान छोड़कर मै सदा प्रेममद में मतवाली ही बनी रहू |"
कैसी श्रेष्ठ प्रेम कमाना है | ऐसी प्रेमी का प्रेम एक जन्म तक ही सिमित नही रहता, वह तो सनातन, अनंत प्रभु के नित्य स्वरुप  की भांति ही सनातन, अनंत नित्य रहता है |
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