प्रेम जीवन का विशुद्ध रस । प्रेम माधुरी जी का सान्निध्य जंहा अमृत के प्याले पिलाए जाते है ।प्रेम माधुर्य वेबसाइट से हमारा प्रयास है कि इस से एक संवेदना जागृत हो ।

Wednesday, August 22

तूझे एक दिन खुद को पहाचानना हैं |

झमाने कि चिंता में, काहे पडा हैं |
तेरे साथ साई, तुझे फिक्र क्या हैं ||

तूझे एक दिन खुद को पहाचानना हैं |
तेरी आत्मा हि परमात्मा हैं ||
जमाने कि .....

किसी और में हैं चलने कि शक्ती |

तू कैसे समझता हैं खुद चळ रहा हैं ||
जमाने कि  .....

कहां तक सजाएगा अपने बदन को |
ये हैं बोज इसको यही छोडना हैं ||
जमाने कि .....

गले से लगा गम कि कथिनाइयो को |
तेरे पिछले जन्मो का ये सिलसिला हैं ||
जमाने कि .....

खाता करनेवाले सजा तो मिलेगी |
तुझे तेरे अंदर से वोह देखता हैं ||
जमाने कि .....

वो आगाज हैं और वो अंजाम तेरा |
वो हि इब्तदा hai, वो हि इंतीहा हैं ||
जमाने कि .....
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वो फुल ना अबतक चुन पाया

वो फुल ना अबतक चुन पाया

वो फुल ना अबतक चुन पाया
जो फुल चडाने है तुज पर

मैं तेरा द्वार न दूंढ़ सका
साई भटक रहा हूँ डगर डगर

मुज्मे मैं ही दोष रहा होगा
मन तुझको अर्पण कर न सका

तू मुजको देख रहा कबसे
मैं तेरा दर्शन कर न सका

हर दिन हर पल चलता रहता
संग्राम कहीं मन के भीतर

मैं तेरा द्वार...

क्या दुःख क्या सुख क्या भूल मेरी
मैं उल्जा हूँ इन बातो मैं

दिन खोया चांदी सोने मैं
सोया मैं बेसुध रातों मैं

तब ध्यान किया मैंने तेरा
टकराया पग से जब पथ्थर

मैं तेरा द्वार

मैं धुप छाव के बिच कही
माटी के तन को लिए फिरा

उस जगह मुझे थामा तुने
मैं भूल से जिस जगह गिरा

अब तुही पथ दिखला मुजको
सदियों से हूँ घर से बेघर

मैं तेरा द्वार
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आंखे बंद करूँ या खोलूं

आंखे बंद करूँ या खोलूं
मुझको दर्शन दे देना .
दर्शन दे देना, साईं मुझे
दर्शन दे देना ..
मैं नाचीज़ हूँ बन्दा तेरा
तू सबका दाता है .
तेरे हाथ मैं सारी दुनिया
मेरे हाथ मैं क्या है
तुझको देखूं जिसमे एसा
दर्पण दे देना ..
आंखे बंद करूँ या .........

मेरे अन्दर तेरी लहरें
रिश्ता है सदियों का .
जैसे इक नाता होता है
सागार का नादुयों का .
करूँ साधना तेरी केवल
साधना दे देना ..
आंखे बंद करूँ या .........


हम सब हैं सितायें तेरी sai_face
हम सब राम तुम्हारे .
तेरी कथा सुनते जायेंगे
बाबा तेरे सहारे .
इस जंगल में चाहे लाखों
रावण दे देना ..
आंखे बंद करूँ या .........


मेरी मांग बड़ी साधारण
मन में आते रहियो .
हर इक साँस के पीछे अपनी
जलक दिखलाते रहियो .
नाम तेरा ले आखिर तक
वो धड़कन दे देना

आँखे बंद करूँ या .........
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रोके ना हमें संसार.......

रोके ना हमें संसार.......
हमें साईं ने बुलाया है  .

अब कौन करे इनकार,
हमें साईं ने बुलाया है ..
मिला हमको सन्देश,
चलो दाता के देश .

पहनो चोला बस एक,
देखो बदलो ना भेस  .
लो हमसे बढ़ाकर प्यार,
हमें साईं ने बुलाया है ..
रोके ना हमें संसार.......


क्या ख़ुशी की ख़ुशी ,
क्या हमें गम का गम  .
जब तक है दम में दम,
चलते जायेंगे हम .
अब दूर नहीं दरबार,
हमें साईं ने बुलाया है ..
रोके ना हमें संसार.......

चाहे गाडी रुके,
चाहे तूफ़ान चले .
चाहे बादल उड़े,
चमके बिजली भले .
बैठेंगे ना  हिम्मत हार,
हमें साईं ने बुलाया है ..
रोके ना हमें संसार.......

माना मंजिल की और,   
है कठिन रास्ता .
हमको साईं के सिवा,
किस्से क्या वास्ता .
है बड़ा उपकार,
हमें साईं ने बुलाया है . .
रोके ना हमें संसार..
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तेरी शान तेरे जलाल को


तेरी शान तेरे जलाल को
मैंने जब से दिल मैं बिठा लिया |
मैं ने सब चिराग बुझा दिये
मैं ने इक चिराग जला लिया ||

तेरी याद ही मेरी आस है
तेरी धुल मेरा लिबास है |
अब मुझे तू अपना बना भी ले
मैं ने तुजको अपना बना लिया  ||
तेरी शान  ................


मुझे धुप-छावं का गम नहीं
तेरे काँटों फूलों से कम  नहीं |
मुझे जान से भी अज़ीज़ है
इस चमन मैं तेरा दिया लिया  ||
तेरी शान  ................

तेरी रहमते बेहिसाब हैं
करूँ किस जुबान से शुक्रिया |
मुझसे जब भी कोई खता हुई
तुने फिर गले से लगा लिया  ||
तेरी शान  ................

तू अमीर है मैं गरीब हूँ
तेरा मेरा रिश्ता अजीब है |
कभी रुक गया तो चला लिया
 कभी गिर गया तो चला लिया ||
तेरी शान  ................

कभी आसमां पे है आदमी
कभी आदमी है ज़मीन पर |
ये सजा भला उसे क्यों मिले
जिसने अपने सर को झुका लिया ||
तेरी शान  ................

मेरे साथ साया है साईं का
बस ये तसल्ली की बात है |
मैं तेरी नज़र से न गिर सका
मुझे हर नज़र ने गिरा लिया ||
तेरी शान  ................
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धीरज रख वो रहमत की बरखा बरसा भी देगा

धीरज रख वो रहमत की
बरखा बरसा भी देगा  .
जिस साईं ने दर्द दिया है
वो ही दवा भी देगा  ..
 
तोड़ कभी ना आस की डोरी ,  
खुशियाँ देगा भर-भर बोरी  .
मगर वो गम की परछाई से
तुजे डरा भी देगा  ..
जिस साईं ने  .......
 
मांग मैं भर बिंदिया से पहले
नाम वही निंदिया से पहले  .
एक दिन वो तेरी आशा को
इक चेहेरा भी देगा  ..
जिस साईं ने  .......

बढ जायेगी हिम्मत तेरी
घटेगी  जब  घनघोर  अँधेरी  .
बूंद-बूंद तर्सानेवाला
जाम पिला भी देगा  ..
जिस साईं ने  .......
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बाँसुरी

  • बाँसुरी अत्यंत लोकप्रिय सुषिर वाद्य यंत्र माना जाता है, क्योंकि यह प्राकृतिक बांस से बनायी जाती है, इसलिये लोग उसे बांस बांसुरी भी कहते हैं।
  • बाँसुरी बनाने की प्रक्रिया काफ़ी कठिन नहीं है, सब से पहले बांसुरी के अंदर के गांठों को हटाया जाता है, फिर उस के शरीर पर कुल सात छेद खोदे जाते हैं। सब से पहला छेद मुंह से फूंकने के लिये छोड़ा जाता है, बाक़ी छेद अलग अलग आवाज़ निकले का काम देते हैं।
  • बाँसुरी की अभिव्यक्त शक्ति अत्यंत विविधतापूर्ण है, उस से लम्बे, ऊंचे, चंचल, तेज़ व भारी प्रकारों के सूक्ष्म भाविक मधुर संगीत बजाया जाता है। लेकिन इतना ही नहीं, वह विभिन्न प्राकृतिक आवाज़ों की नक़ल करने में निपुण है, मिसाल के लिये उससे नाना प्रकार के पक्षियों की आवाज़ की हू-ब-हू नक्ल की जा सकती है।
बाँसुरी बजाते हुए कृष्ण
  • बाँसुरी की बजाने की तकनीक कलाएं समृद्ध ही नहीं, उस की किस्में भी विविधतापूर्ण हैं, जैसे मोटी लम्बी बांसुरी, पतली नाटी बांसुरी, सात छेदों वाली बांसुरी और ग्यारह छेदों वाली बांसुरी आदि देखने को मिलते हैं और उस की बजाने की शैली भी भिन्न रूपों में पायी जाती है।
  • बाँसुरी, वंसी, वेणु, वंशिका आदि कई सुंदर नामो से सुसज्जित है।
  • प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी।
  • मुरली और श्री कृष्ण एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती । उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया ।
  • कृष्ण के बाद भी भारत में बाँसुरी रही, पर कुछ खोयी खोयी सी, मौन सी। मानो श्री कृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो, उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा।
  • वह कृष्ण प्रिया थी, किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ।
  • युग बदल गए, बाँसुरी की अवस्था जस की तस रही, युगों बाद में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर, उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया। लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई।
  • आज हरिप्रसाद चौरसिया जी का बाँसुरी वादन विश्व प्रसिद्ध है।
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ओशो जी

गुरु को खोजने का अर्थ है : अंहकार का समर्पण ।किसी के चरणों में झुकाने का अर्थ है : झुकने की कला का पहला अभ्यास । झुक गए तो खुदा तो मिल ही जायेगा । बस तुम झुके न थे, वही अड़चन थी ।
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तानसेन

संगीत सम्राट् तानसेन (जन्म- संवत 1563, बेहट ग्राम; मृत्यु- संवत 1646) की गणना भारत के महान गायकों, मुग़ल संगीत के संगीतकारों एवं बेहतरीन संगीतज्ञों में की जाती है। तानसेन का नाम अकबर के प्रमुख संगीतज्ञों की सूची में सर्वोपरि है। तानसेन दरबारी कलाकारों का मुखिया और समाट् के नवरत्नों में से एक था। इस पर भी उसका प्रामाणिक जीवन-वृत्तांत अज्ञात है। यद्यपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परंतु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय है। उसके जीवन की अधिकांश घटनाएँ किंवदंतियों एवं अनुश्रुतियों पर आधारित हैं। प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त स्वामी हरिदास इनके दीक्षा-गुरु कहे जाते हैं। "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" में सूर से इनके भेंट का उल्लेख हुआ है। "दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता" में गोसाई विट्ठलनाथ से भी इनके भेंट करने की चर्चा मिलती है।

जीवन परिचय

तानसेन की जीवनी के सम्बन्ध में बहुत कम ऐसा वृत्त ज्ञात है, जिसे पूर्ण प्रामाणिक कहा जा सके। भारतीय संगीत के प्रसिद्ध गायक तानसेन का जन्म मुहम्मद ग़ौस नामक एक सिद्ध फ़क़ीर के आशीर्वाद से ग्वालियर से सात मील दूर एक छोटे-से गाँव बेहट में संवत 1563 में वहाँ के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था।[2] इनके पिता का नाम मकरंद पांडे था। पांडित्य और संगीत-विद्या में लोकप्रिय होने के साथ-साथ मकरंद पांडे को धन-धान्य भी यथेष्ट रूप से प्राप्त था। तानसेन की माता पूर्ण साध्वी व कर्मनिष्ठ थीं। तानसेन का पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से हुआ। एकमात्र संतान होने के कारण इनके माँ-बाप ने किसी प्रकार का कठोर नियंत्रण भी नहीं रखा।

मूल नाम

तानसेन का मूल नाम क्या था, यह निश्चय पूर्वक कहना कठिन है, किंवदंतियों के अनुसार उन्हें तन्ना, त्रिलोचन, तनसुख, अथवा रामतनु बतालाया जाता है। तानसेन इनाका नाम नहीं इनकी उपाधि थी, जो तानसेन को बांधवगढ़ के राजा रामचंद्र से प्राप्त हुई थी। वह उपाधि इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसने इनके मूल नाम को ही लुप्त कर दिया। इनका जन्म-संवत् भी विवादग्रस्त है। हिन्दी साहित्य में इनके जन्म की संवत 1588 की प्रसिद्धि है किंतु कुछ विद्वानों ने संवत 1563 माना है।[3] तानसेन के मधुर कंठ और गायन शैली की ख्याति सुनकर 1562 ई. के लगभग अकबर ने उन्हें अपने दरबार में बुला लिया। अबुल फ़जल ने 'आइना-ए-अकबरी' में लिखा है कि अकबर ने जब पहली बार तानसेन का गाना सुना तो प्रसन्न होकर पुरस्कार में दो लाख टके दिए। तानसेन के कई पुत्र थे, और एक पुत्री थी। पुत्रों में तानतरंग ख़ाँ, सुरतिसेन और विलास ख़ाँ के नाम प्रसिद्ध हैं। उनके पुत्रों एवं शिष्यों के द्वारा "हिन्दुस्तानी संगीत" की बड़ी उन्नति हुई थी।

संगीत शिक्षा

तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहाँ पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन को संगीत की शिक्षा ग्वालियर में वहाँ के कलाविद् राजा मानसिंह तोमर के किसी विख्यात संगीताचार्य से प्राप्त हुई थी। गौस मुहम्मद को उसका संगीत-गुरु बतलाना अप्रमाणित सिद्ध हो गया है। उस सूफी संत के प्रति इनकी श्रद्धा भावना रही हो, यह संभव जान पड़ता है।
ग्वालियर राज्य का पतन हो जाने पर वहाँ के संगीताचार्यों की मंडली बिखरने लगी थी। उस परिस्थिति में तानसेन को ग्वालियर में उच्च शिक्षा प्राप्त करना संभव ज्ञात नहीं हुआ। वह वृंदावन चले गए थे, जहाँ उसने संभवतः स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। वल्लभ संप्रदायी वार्ता के अनुसार तानसेन ने अपने उत्तर जीवन में अष्टछाप के संगीताचार्या गोविंदस्वामी से भी कीर्तन पद्धति का गायन सीखा था।[4]

रचनाएँ

नये रागों का आविष्कार

तानसेन ग्वालियर परंपरा की मूर्च्छना पद्धति के एवं ध्रुपद शैली के विख्यात गायक और कई रागों के विशेषज्ञ थे। इनको ब्रज की कीर्तन पद्धति का भी पर्याप्त ज्ञात था। साथ ही वह ईरानी संगीत की मुकाम पद्धति से भी परिचित थे। उन सब के समंवय से उसने अनेक नये रागों का आविष्कार किया था, जिनमें "मियाँ की मलार" अधिक प्रसिद्ध है। तानसेन के गायन की प्रशंसा में कई चमत्कारपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, किंतु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

ध्रुपदों की रचना

तानसेन गायक होने के साथ ही कवि भी थे। उसने अपने गान के लिए स्वयं बहुसंख्यक ध्रुपदों की रचना की थी। उनमें से अनेक ध्रुपद संगीत के विविध ग्रंथों में और कलावंतों के पुराने घरानों में सुरक्षित हैं। तानसेन के नाम से "संगीत-सार और "राग-माला" नामक दो ग्रंथ भी मिलते हैं[5]
ग्रंथ "संगीत-सम्राट तानसेन" में उसके रचे हुए 288 ध्रुपदों का संकलन है। ये ध्रुपद विविध विषयों से संबंधित हैं। इसके अतिरिक्त उनके ग्रंथ "संगतिदार" और "रागमाला" भी संकलित हैं। यहाँ पर तानसेन कृत "कृष्ण लीला" के कुछ ध्रुपद उदाहरणार्था प्रस्तुत हैं-
पलना-झूलन-
हमारे लला के सुरंग खिलौना, खेलत, खेलत कृष्ण कन्हैया।
अगर-चंदन कौ पलना बन्यौ है, हीरा-लाल-जवाहर जड़ैया॥
भँवरी-भँवरा, चट्टा-बट्टा, हंस-चकोर, अरू मोर-चिरैया॥
तानसेन प्रभु जसोमति झुलावै, दोऊ कर लेत बलैया।
गो-चारन-
धौरी-ध्रुमर, पीयरी-काजर कहि-कहि टेंरै।
मोर मुकट सीस, स्त्रवन कुंडल कटि में पीतांबर पहिरै॥ ग्वाल-बाल सब सखा संग के, लै आवत ब्रज नैरै।
"तानसेन" प्रभु मुख रज लपटानी जसुमति निरखि मुख है रै।
आजु हरि लियै अनहिली गैया, एक ही लकुटि सों हाँकी॥
ज्यों-ज्यों रोकी मोहन तुम सोई, त्यों-त्यों अनुराग हियं देखत मुखां की।
हम जो मनावत कहूँ तूम मानत, वे बतियाँ गढ़ि बॉकी॥
तृन नहीं चरत, बछरा नहीं चौखत की,
हम कहा जानै, को है कहाँ की।
तानसेन प्रभु वेगि दरस दीजै सब मंतर पढ़ि आँकी॥[6]
प्रथम उठ भोरही राधे-किशन कहो मन, जासों होवै सब सिद्ध काज।
इहि लोक परलोक के स्वामी, ध्यान धरौ ब्रजराज॥
पतित उद्धारन जन प्रतिपालन, दीनदयाल नाम लेत जाय दुख भाज।
"तानसेन" प्रभु कों सुमरों प्रातहिं, जग में रहै तेरी लाज॥
मुरली बजावै, आपन गावै, नैन न्यारे नंचावै, तियन के मन कों रिझावै।
दूर-दूर आवै पनघट, काहु के धटन दुरावै, रसना प्रेम जनावै॥
मोहिनी मूरत, सांवती सूरत, देखत ही मन ललचावै।
"तानसेन" के प्रभु तुम बहुनायक, सबहिंन के मन भावै॥

चमत्कारी घटनाएँ

यह कहा जाता है कि तानसेन के जीवन में पानी बरसाने, जंगली पशुओं को मंत्र- मुग्ध करने तथा रोगियों को ठीक करने आदि की अनेक संगीत-प्रधान चमत्कारी घटनाएँ हुईं। यह निर्विवाद सत्य है कि गुरु-कृपा से उन्हें बहुत-सी राग-रागनियाँ सिद्ध थीं। और उस समय देश में तानसेन जैसा दूसरा कोई संगीतज्ञ नहीं था। तानसेन ने व्यक्तिगत रूप से कई रागों का निर्माण भी किया, जिनमें दरबारी कान्हड़ा, मियाँ की सारंग मियाँमल्लार आदि उल्लेखनीय हैं।

 
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संगीत थेरेपी

संगीत थेरेपी दोनों एक मित्र राष्ट्रों स्वास्थ्य पेशे और वैज्ञानिक अनुसंधान जो प्रक्रिया के नैदानिक चिकित्सा और biomusicology, संगीत ध्वनिकी, संगीत सिद्धांत, psychoacoustics और तुलनात्मक संगीत की विद्या के बीच correlations के अध्ययन के एक क्षेत्र है।
यह एक पारस्परिक प्रक्रिया संगीत और इसकी पहलुओं के सभी में एक प्रशिक्षित संगीत चिकित्सक का उपयोग करता है-शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, सामाजिक, सौंदर्य और आध्यात्मिक-ग्राहकों को बेहतर बनाने के लिए या उनके स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करने के लिए।
संगीत चिकित्सक मुख्य रूप से ग्राहकों के संगीत अनुभव (उदाहरण के लिए, गायन, songwriting, सुन और संगीत, संगीत में जाने पर चर्चा) का उपयोग करते हुए उनके कामकाज और आत्म में जीवन की गुणवत्ता (उदाहरण के लिए, संज्ञानात्मक कार्य, मोटर कौशल, भावनात्मक और भावात्मक विकास, व्यवहार और सामाजिक कौशल) विभिन्न डोमेन के नमूदार स्तर में सुधार मदद मध्यम श्रेणी का इलाज लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए।
रेफरल संगीत चिकित्सा सेवाओं के लिए एक चिकित्सक के उपचार या ऐसे चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिक, भौतिक चिकित्सक और व्यावसायिक चिकित्सक के रूप में चिकित्सकों के निर्वाचकगण के एक अंतःविषय टीम द्वारा किया जा सकता है।
संगीत चिकित्सक व्यवसायों की मदद के लगभग हर क्षेत्र में पाया जाता है। कुछ अधिक पाया प्रथाओं विकासात्मक कार्य (संचार, मोटर कौशल, आदि) विशेष आवश्यकताओं, songwriting और बुजुर्ग, प्रसंस्करण और छूट के काम, और लयबद्ध entrainment स्ट्रोक के शिकार में भौतिक पुनर्वास के लिए के साथ संस्मरण/अभिविन्यास के काम में सुनने के साथ व्यक्तियों के साथ शामिल हैं।
द्वारा Turco-फारसी मनोवैज्ञानिक और संगीत सिद्घांतकार अल-यूरोप में, "Alpharabius" के रूप में जाना जाता फराबी (872–950), अपने ग्रंथ ' अर्थ की बुद्धि ', में संगीत थेरेपी के साथ जहां वह आत्मा पर संगीत के उपचारात्मक प्रभाव पर चर्चा की निपटा।
रॉबर्ट बर्टन अपने क्लासिक काम में, ' शरीर रचना विज्ञान की उदासी ', 17 वीं सदी में लिखा था कि संगीत और नृत्य मानसिक बीमारी, विशेष रूप से झक के उपचार में महत्वपूर्ण थे।
यह अभिव्यंजक उपचार में से एक माना जाता है।
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संगीत और प्रकृति

संगीत और प्रकृति
-हेम सिंह
सृष्टि के प्रारम्भ से संगीत हमारे जीवन का अभिन्न अंग रहा है | अगर देखा जाये तो प्रकृति का प्रत्येक तत्व संगीतमय है| कलकल करती नदियां हो या फिर सन्तूर की तान छोड़ते झरने, हवा के संग संग मद मस्त झूमते बाग वन हो या फूलों की खुसबू से मदहोश भवरें और तितलियां, ये सभी संगीत की स्वछंद स्फ्रुतिट स्वर लहरियों पर इतराते नजर आते है| कुछ वैज्ञानिको ने तो यहाँ तक कहा है कि संगीत ही वो विधा है जो हमारे मन मस्तिष्क पर सीधा असर डालती है| संगीत की अब तक की यात्रा पर दृष्टिपात करने से ये बात पूणतः सत्य लगती है|
हमारे यहाँ शास्त्रीय रागों का निर्धारण भी प्रकृति के विविध रंगों के अनुरूप ही किया गया है| प्रभात बेला पर गाये जाने वाले राग अलग हैं और संध्या बेला व रात्रि में गाये जाने वाले राग अलग| महान् संगीतज्ञों द्वारा किया गया रागों का निर्धारण जिस समय के लिय निर्धारित है उससे विपरीत राग को गाने या बजाने पर वो अनुभूति नहीं होती जो उसके निर्धारित काल या समय में मिलती है| इससे स्पष्ट हो जाता है कि संगीत कि प्रकृति प्रकृति से अनुप्राणित है|
संगीत न केवल हमारी जीवन शैली है बल्कि हमारी सम्पूर्ण शक्ति का अनुपम स्रोत भी है| हमारा सम्पूर्ण आध्यात्म किसी न किसी रूप में संगीत पर ही आधारित है| संगीत में अदभुत शक्ति है इसमें अमरत्व सा चमत्कार है| संगीत कि महत्ता को दर्शाते हुये महापुरुषों ने भी कुछ येसा ही कहा है| सादी के अनुसार संगीत क पीछे पीछे खुदा चलता है| जबकि महात्मा गाँधी का कथन है कि मधुर संगीत आत्मा के ताप मन को शान्त कर देता है| प्रसिद्ध विद्वान लांगफेलो का मानना है कि संगीत मानव की विश्व व्यापी भाषा है| यानि संगीत की कोई एक भाषा नहीं, कोई सीमा नहीं| वो हमारी प्रकृति की तरह ही सब पर सामान दृष्टि रखता है| व्यक्ति की आत्मा से निकलता है और आत्मा से जुड़ता है|
संगीत की सहजता, सरलता और उसकी अपार शक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे यहाँ देवी-देवता भी बिना, मुरली, डमरू तथा वीणा के पुरे नहीं समझे गए हैं, मानव का तो प्रशन ही क्या है | संगीत मानव को ही नहीं अपितु अन्य प्राणियों को भी अपने वश में करने की विशेषता रखता है | संगीत मन को एकाग्र करने में भी बड़ा सहायक शिद्ध होता है | संगीत के माध्यम से आप अपने ईष्ट में बड़ी जल्दी और सुगमता से तन्मय हो सकते है | योगी जन जीवात्मा और परब्रम्ह में की जिस एकता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन सुखा देता है वह संगीत के माध्यम से सहज ही प्राप्त हो जाता है| क्या जड़ और क्या चेतन संगीत सब पर अपना समान अधिकार रखता है | संगीत की विशेताओं का वर्णन करते हुए कारलाइन ने एक स्थान पर लिखा है कि Music is well said to be speech of angels अर्थात् संगीत को फरिश्तों कि भाषा ठीक ही कहा गया है|
संगीत को एक दैवी कल्पना माना गया है| सामदेव से लेकर आज तक चली आ रही भारतीय संगीत कि अक्षुण्य परंपरा को विश्व मे प्राचीनतम कहा गया है| इसने जाती और धर्म के बंधनों को तोडा है और शायद संगीत हमारे देश की सांस्कृतिक एकता की मजबूत कड़ी रही है| स्वामी हरिदास, अमीर खुसरो जैसे महान संगीतकारों के संगीत साधना पर दृष्टिपात करने से ये स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि भारितीय शास्त्रीय संगीत प्रारंभ से किसी न किसी रूप में प्रकृति अथवा आध्यात्म से ही जुड़ा है और शायद इसीलिय भारितीय शास्त्रीय संगीत आज भी हमारी आत्मा को गहराई से झंकृत करता है|
ऐसी मान्यता है कि तानसेन जैसे सिद्धहस्त संगीतज्ञ अपनी गायकी से प्रकृति के नियमो को भी बदल देते थे जैसे मेघ मल्हार गाकर बारिश करा देना, बिना किसी अग्नि के दीपक जला देना आदि| वैज्ञानिक तर्कों पर इसे आजमाने पर ये बात सामने आती है कि वास्तव में मेघ मल्हार गाने से बारिश नहीं होती थी बल्कि बारिश जैसी अनुभूति होती थी| यदि इस बात को ही सत्य माना जाए तो भी ये अपने में किसी चमत्कार से कम नहीं और ये चमत्कार संगीत और प्रकृति कि साम्यता का ही परिणाम है हाल के वर्षों में संगीत में बहुत सारे प्रयोग हुए हैं इन प्रयोगों में ये बात मुखरित हुई है कि संगीत ही एक मात्र ऐसा माध्यम है जो पृथ्वी पर रहने वाले लगभग प्रत्येक प्राणी को अपने वश में कर सकता है| आज तो संगीत से बीमारिओं का इलाज भी किया जा रहा है| मेरे हिसाब से संगीत एक शास्त्र है, जो बिना योग और कठिन साधना के सिद्ध नहीं हो पाता| जो इसको सिद्ध कर लेता है उससे प्रकृति भी सिद्ध हो जाती है| क्योंकि सच्चा संगीत प्रकृति के विभिन्न रंगों और नियमों से ही प्ररित है फिर वो संगीत चाहे लोक हो अथवा शास्त्रीय|
backlink-http://kumaonparishad.com/index.php?option=com_content&view=article&id=51&Itemid=64
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दर्द से ध्यान हटा सकता है पसंदीदा संगीत .

दर्द से ध्यान हटा सकता है पसंदीदा संगीत .

दर्द से ध्यान हटा सकता है पसंदीदा संगीत .
(म्यूजिक कैन टेक अवे पैन /MUSIC CAN TAKE AWAY PAIN /YOU /MUMBAI MIRROR /DEC 24,2011P29).
जिन लोगों की बे -चैनी दिन रात बनी रहती है एन्ग्जायती लेविल उच्चतर बना रहता है तथा जिनका ध्यान बोध सम्बन्धी (संज्ञानात्मक कामों )में ज्यादा रमता है संगीत उनके लिए एक बेहतरीन दर्द -हारी (ANALGESIC ) )का काम कर सकता है .
कृत्रिम दर्द उद्दीपनों के प्रति होने वाली अनुक्रिया को रेस्पोंस को भटका सकता है पसंदीदा संगीत .दर्द के केन्द्रों की तरफ बढ़ने से भटका सकता है .यही कहना है University of Utah Pain Research centre के साइंसदानों का .
अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने बतलाया है ,संगीत व्यक्ति का ध्यान दर्द से विमुख कर सकता है .संज्ञानात्मक केंद्र से बाहर खदेड़ सकता है दर्द के केंद्र बिंदु को एहसास को .
इस अध्ययन का केन्द्रीय बिंदु है मरीज़ का ध्यान दर्द से हटाना .यही दर्द के विनियमन का कामयाब ज़रिया बन सकता है एक दिन .
अध्ययन में १४३ प्रतिभागियों का जायजा लिया गया है .
उन्हें संगीत के ट्रेक्स सुनवाए गए ,उनके माधुर्य पर ध्यान लगाने को तथा संभावित विचलन वेरिएशन का पता लगाने के लिए कहा गया .
इसी दरमियान उन्हें फिंगर टिप्स इलेक्ट्रोडों के ज़रिये सह सकने लायक सुरक्षित experimental pain shocks भी दिए गए .पता चला दर्द की लहर खासी कम हो गई थी संगीत की स्वर लहरी माधुरी के असर से . दर्द का उद्दीपन माधुर्य और सुने गए संगीत की मात्रा के अनुरूप ही कमतर होता गया .
Central arousal from the pain stimuli reliably decreased with the increasing music task demand .
संगीत दर्द के एहसास को कमतर कर देता है .यह इन्द्रिय बोध सम्बन्धी रास्तों को सक्रीय करके एक तरफ संवेगात्मक अनुक्रियाओं को बढा देता है जो दर्द के रास्तों से मुकाबला करके दर्द की लहर को दर्द का एहसास करने वाले हिस्सों तक पहुँचने से रोक देती है .दूसरी तरफ मन को संगीत लहरी में ही रमा देता है .संगीत इस तरह एक प्रकार का बोध और संवेगात्मक सम्बन्धी मानसिक अनुबंध है . जो दर्द के एहसास को घटाता है .यह अध्ययन जर्नल ऑफ़ पैन में प्रकाशित हुआ है .
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संगीत एक ध्यान

ध्यान-विधि
संगीत एक ध्यान
संगीत को सुनते हुए सजग हो कर उसमें प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को खोजो-उस केंद्रीय स्वर को खोजो जो पूरे संगीत को सम्हाले हुए रहता है
शिव ने कहाः तारवाले वाद्यों की ध्वनि सुनते हुए उसकी संयुक्त केंन्द्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।
तुम किसी वाद्य को सुन रहे हो, सितार या किसी वाद्य को। उसमें कई स्वर हैं। सजग हो कर उसके केंद्रीय स्वर को सुनों-उस स्वर को उसका मेरूदंड हो और जिसके चारों ओर और सभी स्वर घूमतें हो; उसकी गहनतम धारा को सुनो जो अन्य सभी स्वरों को सम्हाले हुई जैसे तुम्हारे पूरे शरीर को उसका मेरुदंड, उसकी रीढ़ सम्हाले हुई है, वैस ही संगीत की भी रीढ़ होती है।
संगीत को सुनते हुए सजग हो कर उसमें प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को खोजो - उस केंद्रीय स्वर को खोजो जो पूरे संगीत को सम्हाले हुए रहता है। स्वर तो आते-जाते और विलीन होते रहते हैं, लेकिन केंद्रीय तत्व प्रवाहमान रहता है।
उसके प्रति जागरूक होओ।
बुनियादी रूप में, मूलतः संगीत का उपयोग ध्यान के लिए किया जाता था। भारतीय संगीत का विकास तो विशेष रूप से ध्यान की विधि के रूप में ही हुआ। वैसे ही भारतीय नृत्य का विकास भी ध्यान-विधि की तरह हुआ। संगीतज्ञ या नर्तक के लिए ही नहीं, श्रोता या दर्शक के लिए भी वे गहरे ध्यान के उपाय थे।
नर्तक या संगीतज्ञ मात्र एक यंत्रविशेषज्ञ, एक टेक्नीशियन भी हो सकता है। यदि उसका नृत्य या संगीत में ध्यान नहीं है तो वह टेक्नीशियन ही है। वह बड़ा टेक्नीशियन हो सकता है; लेकिन तब उसके संगीत में आत्मा नहीं है, शरीर भर है। आत्मा तो तब होती है जब संगीतज्ञ गहरा ध्यानी भी हो।
संगीत तो बाहरी चीज है। लेकिन सितार बजाते हुए वादक केवल सितार ही नहीं बजाता है। वह भीतर अपने बोध को भी जगा रहा है। बाहर सितार बजता है और उसका सघन होश भीतर गति करता है। संगीत बाहर बहता रहता है, लेकिन वह संगीत के अंतरस्थ केंद्र के प्रति सदा सजग बना रहता है। वह समाधि लाता है। वह आनंद लाता है। वह शिखर बन जाता है...
लेकिन जब तुम संगीत सुनते हो तो क्या करते हो? तुम ध्यान नहीं करते हो; उलटे तुम संगीत का शराब की तरह उपयोग करते हो। तुम हलके होने के लिए संगीत का उपयोग करते हो; तुम आत्म-विस्मरण के लिए संगीत का उपयोग करते हो।
यही दुर्भाग्य है, यही पीढ़ा है कि जो विधियां जागरूकता के लिए विकसित की गई थीं, उनका उपयोग नींद के लिए किया जा रहा है! और यह एक उदाहरण है कि आदमी कैसे अपने साथ दुष्टता और अनिष्ट किये जा रहा है...

यह सूत्र कहता है कि ''तारवाले वाद्यों की ध्वनि को सुनते हुए, उसकी संयुक्त केंद्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।'' और तब तुम उसे जान लोगे, जो जानने योग्य है। तब तुम सर्वव्यापक हो जाओगे। उस संगीत के साथ, उसके सामासिक केंद्रीय मर्म को प्राप्त कर तुम जाग जाओगे और उस जागरण के साथ तुम सर्वव्यापी हो जाओगे।
अभी तो तुम कहीं एक जगह हो; उस बिंदु को हम अहंकार कहते हैं। अभी तुम उसी बिंदु पर हो। यदि तुम जाग जाओगे तो यह बिंदु विलीन हो जाएगा। तब तुम कहीं एक जगह नहीं होओगे। तुम सागर हो जाओगे। तुम अनंत हो जाओगे।
मन के साथ सीमा है और ध्यान के साथ अनंत प्रवेश करता है।
-ओशो
ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
http://www.oshoworld.com/onlinemaghindi/august12/htm/Dhyan_Vidhi.asp
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Tuesday, August 21

युवा पीढ़ी

http://oshoworld.com/onlinemaghindi/august12/htm/Yuva_Jagat.asp
युवा पीढ़ी
वृद्ध पीढ़ी विरोध में है और जवान पीढ़ी अनुभवहीन है। रास्ता कौन बनायेगा? रास्ता बनाने के लिए दो चीजों की जरूरत है-अनुभव की और शक्ति की। शक्ति जवान के पास है, अनुभव बूढ़े के पास है
आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर जाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने वाले साहस को ही युवा कहा जाता है। युवा एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही मन उमंगे भरने लगता है। उम्र का यही वह पड़ाव है जहां बैठकर बाकी जिदंगी की किस्मत तय की जाती है। असम्भव को संभव में बदलने वाले युवा शक्ति की तादाद भारत में सबसे ज्यादा है। देश में 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्रं के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। इस युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है। इनका जरा सा भी भटकाव देश की उन्नति को अवन्नित में बदल सकता है। युवाओ के बारे में ओशो कहते है, ''युवा होने का एक ही मतलब है-वैसी आत्मा विद्रोही की जो झुकना नहीं जानती, टूटना जानती है; जो बदलना चाहती है, जो जिंदगी को नई दिशाओं में, नये आयामों में ले जाना चाहती है, जो जिंदगी को परिवर्तन करना चाहती है। क्रांति की यह उद्याम आकांक्षा की युवा होने का लक्षण है।'' लेकिन सवाल यह है कि क्रांति की वह धधकती लौ आखिर है कहां?

आधुनिक समाज में मैटेरियलस्टिक होने की होड़ सी लगी हुई है। उसी दौड़ मे कहीं न कहीं युवा भी फंसता चला जा रहा है। पश्चिमीकरण के पहनावे और संस्कृति को अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं होती है। आज किशोर भी 14-15 वर्ष की आयु में ही ड्रग्स, और डिस्कों का आदी हो रहा है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति ने हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को जन्म दिया है। जिससे इस युवा शक्ति का कदम अधंकार की तरफ बढता हुआ दिख रहा है। देश के नौजवानों को सही राह दिखाना अति आवश्यक है। ताकि जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सके। वहीं सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि अपने महत्वाकांक्षाओ और दृढ़ निश्चय ने युवाओं का राजनीतिक और सामाजिक जीवन को भी ऊपर उठाया है।
ओशो कहते है, हमारा जवान मुश्किल में है, बहुत कठिनाई में है। और मेरी अपनी मान्यता है कि करूणा के योग्य है, क्रोध के योग्य नहीं। बहुत दया के योग्य है क्योंकि उसको कोई वसीयत नहीं छोड़ गया है। एक अर्थ में हमारा युवक अनाथ है। अनाथ इस अर्थों में कि उसकी जमीन की कोई वसीयत उसके पास नहीं है। उसकी पुरानी पीढ़ियां उसके लिए जीने योग्य, जिंदगी से रस निकालने योग्य, कोई भी तकनीक, कोई साइंस नहीं छोड़ गयी हैं। हां, उसे एक तरकीब बता दी है कि अगर तुम्हें मरना हो तो मोक्ष जाने का रास्ता है। अभी वह मरना नहीं चाहता है, वह जीना चाहता है-उसके लिए व्यर्थ है। इसलिए मंदिरों में, मस्जिदों में जवान दिखायी नहीं पड़ता। हां, लड़कियों वगैरह के खयाल से कोई जवान पहुंच गया हो तो बात अलग है। लेकिन मंदिर और मस्जिद के लिए जवान नहीं जाता, वहां बूढ़े इकटठे हो रहे हैं।
वहां बूढे क्यों दिखाई पड़ रहे है, उसका कारण है। उसका कारण है, बूढ़े की उत्सुकता बदल गयी। अब वह जिंदा रहने में उत्सुक नहीं है। अब वह ढंग से मरने में उत्सुक है। ठीक है, उसकी उत्सुकता गलत नहीं है। उसकी उत्सुकता की भी तृप्ति होनी चाहिए और उसके चिंतन को भी मार्ग मिलना चाहिए कि मृत्यु के बाद क्या है? लेकिन वह जवान का चिंतन नहीं है। तो हम कठिनाई में पड़ गये हैं। रास्ता नहीं है, रास्ता बनाना पड़ेगा।

कौन बनाएगा यह रास्ता? बड़ी जटिलता का सवाल है क्योंकि बूढ़े विरोध में है, वृद्व पीढ़ी विरोध में है और जवान पीढ़ी अनुभवहीन है। रास्ता कौन बनाएगा? रास्ता बनाने के लिए दो चीजों की जरूरत है-अनुभव की और शक्ति की। शक्ति जवान के पास है, अनुभव बूढ़े के पास है। उन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है। रास्ता बनेगा कैसे? रास्ता बनाने के लिए हिन्दुस्तान की बूढ़ी पीढ़ी को जवान के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होना पड़ेगा। अपने अनुभव से उसे सचेत करना पड़ेगा, जवान की शक्ति को नियोजित करना पडेगा। लेकिन बूढ़ी पीढ़ी निंदा में सलंग्न है। वह सिर्फ निंदा कर रही है वह सिर्फ गालियां दे रही है कि सब बिगड़ गये हैं। लेकिन यह कहने से कुछ फल नहीं होता। इससे अगर कोई बिगड़ भी गया हो तो उसे कोई सुधरने का मार्ग नहीं मिलता। अगर कोई न भी बिगड़ा हो तो बार-बार कहने से कि बिगड़ गया है, उसके चित्त में बिगड़ने की दिशा पैदा होती है।

नहीं, वृद्व पीढ़ी का बहुत ही कीमती समय यह है कि वह अपने सारे अनुभव पर ध्यान देकर भारत के लिए नया रास्ता बनाने में युवक की शक्ति का नियोजन कर सके। लेकिन यह तभी हो सकता है जब वृद्व-पुरानी पीढ़ी-नयी पीढ़ी की तरफ निंदा से न देखे, करूणा और प्रेम से देखे। लेकिन वृद्ध नाराज है। नाराज वह इसलिए है कि उसकी पुरानी सारी दुनिया अस्त-व्यस्त हो गयी है। नाराजगी का कारण दूसरा है। नाराजगी का कारण उसका अब तक का बनाया हुआ सारा ढांचा गिर गया है। जैसे मैं एक मकान बनाऊं और पूरा मकान गिर जाए और मैं अपने बेटे की पिटायी शुरू कर दूं। मेरा क्रोध तो उस मकान के गिर जाने के लिए है।
पुरानी संस्कृति का पूरा मकान गिर रहा है, गिर गया है। नाराजगी बेटे पर है। ऐसा लग रहा है कि ये बेटे मकान को गिराये दे रहे हैं। मकान, जैसा हमने बनाया था। हां बेटों ने अब तक उसे सहारा दिया था क्योंकि बेटों को हम बहुत जल्दी बूढ़ा बना देते हैं। अब बेटे उसको बचाने में सहायता नहीं दे रहे हैं। गिरा नहीं रहे, सिर्फ बचाने में सहायता नहीं दे रहे है। और बूढ़े हाथ कैसे किसी मकान को बचा सकते है? वह गिर रहा है। वे बेटों पर नाराज हैं। उस नाराजगी को छोड़ना पड़ेगा। और मेरी दृष्टि में अगर पिछली पीढ़ी नाराजगी को छोड़ दे तो नयी पीढ़ी उसके प्रति आदर से भर सकती है। जो निंदा करे उसके प्रति आदर नहीं हो सकता। नयी पीढ़ी उसके प्रति आदर से भर सकती है। जो निंदा करे उसके प्रति आदर नहीं हो सकता। नयी पीढी का आदर नहीं है पुरानी पीढ़ी के प्रति, क्योंकि पुरानी पीढ़ी सिवाय निंदा के और कुछ भी नहीं कर रही है।
-ओशो
पुस्तक: भारत के जलते प्रश्न
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कृष्ण का अर्थ

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कृष्ण का अर्थ
कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जिस पर संसारी चीजें खिचती हों, जो केंद्रीय चुंबक का काम करे
कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश का केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जिस पर संसारी चीजें खिचती हों, जो केंद्रीय चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें खिंचती हैं और आकृष्ट होती हैं। शरीर खिंच कर उसके आस-पास निर्मित होता है, परिवार खिच कर उसके आस-पास निर्मित होता र्है, समाज खिंच कर उसके आस-पास निर्मित होता है, जगत खिंच कर उसके आस-पास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आस-पास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है। वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है। और उसके बाद सब चीजें उसके आस-पास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण-बिंदु के आस-पास क्रिस्टोलाइजेशन शुरु होता है और व्यक्तित्व निर्मित होते हैं। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्मपात्र नहीं है, बल्कि व्यक्तिमात्र का जन्म है।
अंधेरे का, कारागृह का, मृत्यु के भय का अर्थ है। लेकिन हमने कृष्ण के साथ उस क्यों जोड़ा होगा? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो कृष्ण की जिंदगी में घटना घटनी होगी कारागृह में, वह नहीं घटी है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि जो बंधन में पैदा हुए होंगे, वह नही हुए हैं। मैं इतना कह रहा हूं कि वे बंधन में हुए हो या न हुए हों, वे कारागृह में जन्मे हों या न जन्में हो, लेकिन कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो कि प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है।
ध्यान रहे, महापुरुषों की कथाएं जन्म की हमेशा उलटी चलती हैं। साधारण आदमी के जीवन की कथा जन्म से शुरू होती है और मृत्यु पर पूरी होती है। उसकी कथा में एक सिक्केंस होता है, जन्म से लेकर मृत्यु तक। महापुरुषों की कथाएं फिर से रिट्रास्पेक्टिवली लिखी जाती हैं। महापुरुष पहचान में आते हैं बाद में। और उनकी जन्म की कथाएं फिर बाद में लिखी जाती हैं। कृष्ण जैसा आदमी जब हमें दिखाई पड़ता है तब तो पैदा होने के बहुत बाद दिखाई पड़ता है। वर्षों बीत गए होते हैं उसे पैदा हुए। जब वह हमें दिखाई पड़ता है तब वह कोई चालीस-पचास साल की यात्रा कर चुका होता है। फिर इस महिमावान, इस अद्भुत व्यक्ति के आस-पास कथा निर्मित होती है। फिर हम चुनाव करते हैं इसकी जिंदगी का। फिर हम रीइंटरप्रीट करते हैं। फिर से हम इसके पिछले जीवन में से घटनाएं चुनते हैं, घटनाओं का अर्थ देते हैं।
इसलिए मैं आपसे कहूं कि महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौट कर निर्मित होती है। पीछे लौट कर जब हम देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है, जो अर्थ घटते हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिदंगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी बार-बार लिखती है। हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएं होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं। एक इंस्टीटयूशन हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों का सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है।
इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में मैं कोई मूल्य नहीं मानता हूं। कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति नहीं रह जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे कलेक्टिव माइंड के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे है, वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।
इसे ऐसा समझें। एक बहुत बड़े चित्रकार ने एक स्त्री का चित्र बनाया—एक बहुत सुंदर स्त्री का चित्र। लोगों ने उससे पूछा कि यह कौन स्त्री है, जिसके आधार पर इस चित्र को बनाया? उस चित्रकार ने कहाः यह किसी स्त्री का चित्र नहीं है। यह लाखों स्त्रियां जो मैंने देखी हैं, सबका सारभूत है। इसमें आंख किसी की है, इसमें नाक किसी की, इसमें ओठ किसी के हैं, इसमें रंग किसी का है, इसमें बाल किसी के है, ऐसी स्त्री कही खोजने से नहीं मिलेगी, ऐसी स्त्री सिर्फ चित्रकार देख पाता है। और इसलिए चित्रकार की स्त्री पर बहुत भरोसा मत करना, उसको खोजने मत निकल जाना, क्योंकि जो मिलेगी वह नहीं, साधारण स्त्री मिलेगी। इसलिए दुनिया बहुत कठिनाई में पड़ जाती है क्योंकि हम जिन स्त्रियों को खोजने जाते हैं वे कहीं हैं नहीं, वे चित्रकारों की स्त्रियां हैं, कवियों की स्त्रियां हैं, वे हजारों स्त्रियों का सारभूत हैं। वे इत्र हैं हजारों स्त्रियों का। वे कहीं मिलने वाली नहीं है। वे हजारों स्त्रियां मिल-जुल कर एक हो गई हैं। वह हजारों स्त्रियों के बीच में से खोजी गई धुन है।
तो जब कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा होता है, तो लाखों जन्मों में जो पाया गया है, उस सबका सारभूत उसमें समा जाता है। इसलिए उसे व्यक्तिवाची मत मानना। वह व्यक्तिवाची है भी नहीं। इसलिए अगर उसे कोई इतिहास में खोज करने जाएगा तो शायद कहीं भी न पाए। कृष्ण मनुष्य मात्र के जन्म के प्रतीक बन जाते हैं—एक विशेष मनुष्यता के, जो इस देश में पैदा हुई; इस देश की मनुष्यता ने जो अनुभव किया, वह उनमें समा जाता है। जीसस में समा जाता है किसी और देश का अनुभव, वह सब समाहित हो जाता है। हम अपने जन्म के साथ जन्मते हैं और अपनी मृत्यु के साथ मर जाते हैं। कृष्ण के प्रतीक में जुड़ता ही चला जाता है। अनंत काल तक जुड़ता चला जाता है। उस जोड़ में कभी कोई बाधा नहीं आती। हर युग उसमें जुड़ेगा, हर युग उसमें समृद्धि करेगा, क्योंकि और अनुभव इकट्ठे हो गए होंगे। और वह उस कलेक्टिव आर्च टाइप में जुड़ते चले जाएंगे।
लेकिन मेरे लिए जो मतलब दिखाई पड़ता है, वह मैंने आपसे कहा। ये घटनाएं घट भी सकती हैं, ये घटनाएं न भी घटी हों। मेरे लिए घटनाओं का कोई मूल्य नहीं है। मेरे लिए मूल्य कृष्ण को समझने का है कि इस आदमी में ये घटनाएं कैसे हमने देखीं। और अगर इनको हम ठीक से देख सकें तो ये घटनाएं हमें अपने जन्म में भी दिखाई पड़ सकती है वह अपनी मृत्यु तक पहुंचते-पहुंचते अपनी मृत्यु में भी कृष्ण की मृत्यु के तालमेल को उपलब्ध हो सके।
-ओशो
पुस्तकः कृष्ण स्मृति
प्रवचन नं. 6 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है।)
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तनाव और विश्राम

स्वास्थ्य
तनाव और विश्राम
हम शरीर में जो तनाव महसूस करते हैं, उसका मूल कारण है कुछ बनने की इच्छा। हर आदमी कुछ न कुछ बनने की चेष्टा कर रहा है। जो जैसा है, उसके साथ संतुष्ट नहीं है। हमारा होना स्वीकृति नहीं है, उसे इंकार किया जा सकता है और दूर कहीं एक लक्ष्य निर्मित किया जाता है। तो मूलभूत तनाव है-जो तुम हो और तुम बनना चाहते हो, उसके बीच की दूरी।

तुम जिसकी भी आकांक्षा करते हो वह भविष्य में पूरी होगी। आज तुम जो भी हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। लक्ष्य जितना असंभव होगा, उतना तनाव अधिक होगा। तो भौतिकवादी आदमी इतना तनावपूर्ण नहीं होगा, जितना कि आध्यात्मिक व्यक्ति, क्योंकि उसका आदर्श व लक्ष्य बड़ा ऊंचा है।

तुम और तुम्हारे लक्ष्य के बीच जितनी दूरी होगी उतना तनाव अधिक, दूरी जितनी कम होगी, तनाव भी कम। यदि तुम स्वयं से पूर्णतया संतुष्ट हो तो तनाव बिल्कुल नहीं है। तुम इस क्षण में जीते हो। मेरी दृष्टि में, तुम्हारे होने और बनने के बीच कोई दूरी नहीं हो तो तुम धार्मिक हो।

इस दूरी के कई तल हो सकते हैं तुम जिसकी आकांक्षा करते हो, अगर वह कोई शारीरिक वस्तु है तुम्हारे भौतिक शरीर मे तनाव होगा। जैसे तुम सुंदर दिखना चाहते हो-इसका तनाव तुम्हारे भौतिक शरीर में शुरू होगा। यदि वह बना रहा, मजबूत होता चला गया तो भीतर के गहरे तलों पर पहुँचेगा।

यदि तुम मानसिक शक्ति के लिए तरस रहे हो तो मानसिक तल पर तनाव शुरू होगा और वहां से फैलेगा। इसका फैलना ऐसे ही है, जैसे तुम तालाब में पत्थर फेंको तो वह एक खास बिंदु पर गिरता है, लेकिन उसकी लहरें फैलती चली जाती हैं। तो तनाव तुम्हारे सात शरीरों में से किसी भी शरीर में शुरू हो सकता है, लेकिन इसका कारण वह बना रहता है-तुम्हारे होने और बनने के बीच की दूरी।

तनाव से मुक्त होने का एक ही उपाय है-स्वयं का संपूर्ण स्वीकार। संपूर्ण स्वीकार से चमत्कार घटित होता है। यह एकमात्र चमत्कार है। ऐसे व्यक्ति को खोजना, जिसने स्वयं को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है, एक आश्चर्यजनक घटना है।

अस्तित्व में कोई तनाव नहीं हैं। तनाव पैदा होता है गैर—अस्तित्वगत, काल्पनिक संभावनाओं से। वर्तमान में कोई तनाव नहीं है। कल्पना तुम्हें भविष्य की और दौड़ाती है, उसी से तनाव पैदा होता है। आदमी जितना कल्पनाशील हो, उतना तनाव में जीता है। तब फिर कल्पना विनाशक हो जाती है।

कल्पना रचनात्मक भी हो सकती है। यदि तुम्हारी कल्पना की पूरी क्षमता इस क्षण में केन्द्रित हो, आगे नहीं दौड़ रही हो तो तुम देख सकते हो कि तुम्हारा होना एक कविता है। तुम्हारी कल्पना शक्ति जीने में खर्च हो रही है, योजनाएं बनाने में नहीं। वर्तमान में जीना ही तनाव मुक्त जीना है।

...यदि तुम्हारा शरीर तनाव मुक्त वर्तमान में जी सके तो सही अर्थों में स्वास्थ्य का जन्म होता है। शरीर ऐसे विश्राम को उपलब्ध होता है, जो तुमने कभी नहीं जाना होगा। तब उसके लिए क्षण ही शाश्वत हो जाता है। फिर तो तुम भोजन ले रहे हो तो खाना ही सब कुछ होगा। उसके आगे न कुछ है, न पीछे कुछ है। भोजन करने वाला कोई नहीं होगा, भोजन की क्रिया ही सब कुछ होगी।

यदि तुम दौड़ लगा रहे हो और दौड़ना तुम्हारी समग्रता बन गई हैं, दौड़ने से जो संवेदनाएं उठ रही हैं, उनके साथ यदि तुम एक हो गए हो, उनसे अलग-थलग नहीं हो, तो तुम्हारा शरीर एक विधायक स्वास्थ्य को अनुभव करता है। शरीर के तल पर तुमने विश्रामपूर्ण अंतरतम को अनुभूत कर लिया।
-ओशो
'दी साइक्लोजी ऑफ दी इसोटेरिक'

http://oshoworld.com/onlinemaghindi/august12/htm/Swasthya.asp
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