प्रेम जीवन का विशुद्ध रस । प्रेम माधुरी जी का सान्निध्य जंहा अमृत के प्याले पिलाए जाते है ।प्रेम माधुर्य वेबसाइट से हमारा प्रयास है कि इस से एक संवेदना जागृत हो ।

Tuesday, February 28

मेरी श्यामा~ अनुराग की द्रष्टि करो मुझ पर पद-कमल पराग बना लो मुझे






अनुराग की द्रष्टि  करो मुझ पर पद-कमल पराग बना लो मुझे
नुपुर ही बनू तेरी पायल का..छम-छम से ही साथ लगा लो मुझे..
चरणों की लाली बना लो मुझे..महावर बना के रचा लो मुझे..

मै शुभा  बनू कर कमलो की..मेहँदी बना के लगा लो मुझे ..
मै माला बनू तेरे उर की ..तुम अंग से श्यामा लगा लो मुझे ..
महका दू  तेरे तन मन  को ..(जो )इत्र बना के लगा लो मुझे ..
छाया कर दू तेरे मुख पर आँचल का सितारा बना लो मुझे..



जय जय श्री राधे
मै बन जाऊ सुहाग पिया..मस्तक का टीका बना लो मुझे
मै कालिया बनू तेरे गजरे की..केशो की ही सौभा बना लो मुझे..
बस जाऊ तेरे नैनो में.. काजल बना के लगा लो मुझे..
अधरों पे रच जाऊ श्यामा.. पान की लाली बना लो मुझे..
जिस पथ पर श्यामाश्याम चलो उस पथ की ही धुल बना लो मुझे..
 



 अनुराग की द्रष्टि  करो मुझ पर पद-कमल पराग बना लो मुझे
 अनुराग की द्रष्टि  करो मुझ पर..पद-कमल पराग बना लो मुझे





जय जय श्री राधे
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Monday, February 20

PREMMADHURAY~websitelaunching

SHRI GAURAV KRISHNA GOSWAMI JI AT SURAJGARH,JHUNJHUNU.


"PREMMADHURAY" website shri nitynikunjvihariji ko samarpit hai.is website ke liye SHRI GAURAV KRISHNA GOSWAMI JI ne vishesh ashirwad diya h or kaha h-"isi prakar khub kishoriji ke  liye karya karo".
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माँ







जब आंख खुली तो अम्मा की गोदी का एक सहारा था...
उसका नन्हा सा अंचल मुझ को भूमंडल से प्यारा था...
उसके चहरे की झलक देख चेहरा फूलो सा खिलता था...
उसके अंचल की एक बूंद से मुझे को जीवन मिलता था....
हाथो से बालो को नोचा...पैरो से खूब प्रहार किया...
फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमें जी भर के प्यार किया...
"मै उसका रजा बेटा था..आंख का तारा कहती थी..
मै बनू बुडापे में उसका एक सहारा कहती थी...
उंगली को पकड़ चलाया था पढ़ने विद्यालय भेजा था...
मेरी नादानी को भी निज अंर्तमन में सदा सहेजा था...
मेरे सरे प्रशनो का वो फौरन जवाब बन जाती थी..
मेरे राह के कांटे चुग खुद गुलाब बन जाती थी....
माँ हंसती है तो धरती का जर्रा जर्रा मुस्काता है...
मन मेरे घर के दीवारों में चंदा की सूरत है...
पर मन के इस मंदिर में माँ की मूरत है ...
माँ सरस्वती..लक्ष्मी देवी..अनुसूया सीता है.....
माँ पावनता में राम चरित मानस..भगवत गीता है...
अम्मा मुझे तेरी हर बात वरदान से बड़ कर लगती है...
हे माँ मुझे तेरी सूरत भगवन से बड़ कर लगती है...
सारे तीर्थ के पुण्य जंहा मै उन चरणों में लेटा हूँ...
जिन के कोई संतान नही मै उन माओ का बेटा हूँ....
हर घर में माँ की पूजा हो ऐसा संकल्प उठाता हूँ ...
दुनिया की हर माँ की चरणों में ये शीश झुकाता हूँ..
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प्रेमी



भगवत्प्रेमी कभी संसारके भोगोकी आसक्तिमें नहीफंसता,किसीभी प्राणी-पदार्थ मेंममता नहीकरता,किसीभी सुखकी कमानानहिकरता औरअपने अशुद्धअंहकार कोभगवत्प्रेम में विलीन करके भगवत्सेवातथा भगवत्प्रेमस्वरुप  बन जाता है| इसलिए वहजगत जगतके बंधनसे सर्वथामुक्त होजाता हैतथा अपनीसारी आसक्तिएवं सम्पूर्णममता कोभगवन मेंलगा करउन्हें विशुद्धप्रेमस्वरूप ममता के रज्जु सेबांध लेताहै | उसकावह प्रेमशरीर कीमृत्यु केसाथ मरतानही,वह मुक्तिके साथमुक्त होजाता है| वह नित्यजीवन बनारह करअन्नत कालतक उतरोतर बढ़ता रहता है,उसका कहीअंत नहीहोता है|ऐसे ही प्रेमीजनोकी प्रेमरसका मधुरआस्वादन करने के लिए परम प्रेमास्पद भगवान अपना प्रेममय स्वरुप सदा सुरक्षित रहता है |रखते है तथा प्रेमियों के प्रेमास्पद बने और उनको अपना प्रेमास्पद बनाये नित्य-नव मधुर लीलाव के रूप में प्रकट होकर लीला-विलास करते रहते है |व्रज की एक महाभावरुपा श्यामसुंदर की प्रेम-मूर्ति महाभागा गोपांगना उद्गार है –
होय पद-कंज-प्रीती स्वच्छंद |
करत रहै रसपान नित्य मम-मधुकर मकरंद ||
हनी-लाभ,निंदा-स्तुति,अति अपमान महा सनमान |
प्रेम-पगे जीवन में इन कौ रहै न कछु मन भान ||
रसना रटै नाम प्रिय पिय कौ, हिय हो लीलाधाम |
परसै प्रभु के अंग अंग दृग निरखै रूप ललाम ||
मिटे मोह-तम, जनम-मरन की रहै  न कछु परवाह |
पल-पल बाढै प्रीती अहैतुक, पल-पल रस की चाह ||
डर न रहै परलोक-लोक कौ , बढे प्रेम अबाध |
जनम-जनम मै बनौ रहै तव पवन प्रेम अगाध ||
मिटिबे,घटिबे , थामिबे कौ नहि होय कबहू संकल्प |
उमगत रहै प्रेम-रस-सरिता प्रतिपल बिना बिकल्प ||
कहू लोक मै , कहू जाय जाऊ जीव करम आधीन |
बसौ रहै पिय-प्रेम-सरित मै, जिमि जल-सरिता मीन ||
चाहौ न दुरलभ इन्द्र-ब्रहम-पद, चहौ न गति निरबान |
प्रीतम-पद-पंकज मै अनुदिन बाढै प्रेम महान ||
नरक-प्राप्ति नीची गति तै मै डरौ न रंचक मान |
रहौ प्रेम-मद मै मतवारी, तज मति कौ अभिमान || 

वह कहती है-"मेरी श्रीश्यामसुन्दर के चरणकमलो में स्वच्छंद प्रीती हो जाय |मेरा मन रूपी भ्रमर चरणकमलो के मकरंद-रस का निरंतर पान करता रहे | मेरे प्रेम-परिपूर्ण जीवन में सांसारिक हानि -लाभ, निंदा-स्तुति, घोर अपमान और महान सम्मान का कुछ भान ही न रहे | मेरी जिव्हा प्रियतम के नाम को रटती रहे ; मेरा ह्रदय उनकी लीला का धाम ही बन जाय-सदा-सर्वदा उसमे श्रीश्यामसुन्दर की लीला चलती रहे ; मेरे समस्त अंग प्रभु के अंगो का सुख-स्पर्श-सौभाग्य प्राप्त करते रहे और मेरी आंखे उनके ललित  रूप-सौन्दर्य को देखती रहे | मेरे मोह का सारा अंधकार मिट जाय ; अतएव जन्म-मृत्यु की कुछ परवा न रहे | पल पल में अहैतुक प्रेम बढ़ता रहे और पल पल में रस की चाह बढ़ती  रहे | लोक-परलोक का - इस लोक के बिगड़ने का या  परलोक की दुर्गति का कोई भय न रहे  | हर  अवस्था  में प्रेम का बाधारहित  होकर बढ़ता रहे ; कितने  ही जन्म हो, प्रत्येक  जन्म में तुम्हारा  अगाध विशुद्ध प्रेम बना रहे | उस  पवित्र  प्रेम के कभी मिटने , कम  होने  या रुकने  की कल्पना   ही न हो | प्रेम की वह नदी प्रतिपल बिना विकल्प के उमड़ती ही रहे | यह जीव किसी भी लोक में , कही भी किसी भी योनी में जाय सदा प्रियतम की प्रेम नदी में ही नदी जल में मछली की भांति बसा रहे | जैसे मछली जल के बिना क्षणभर  भी नहीं रह सकती वैसे ही प्रियतम के प्रेम बिना क्षणभर न रहे | बुद्धि का सारा अभिमान छोड़कर मै सदा प्रेममद में मतवाली ही बनी रहू |"
कैसी श्रेष्ठ प्रेम कमाना है | ऐसी प्रेमी का प्रेम एक जन्म तक ही सिमित नही रहता, वह तो सनातन, अनंत प्रभु के नित्य स्वरुप  की भांति ही सनातन, अनंत नित्य रहता है |
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Friday, February 3

यमुना पुलिन कुंज







यमुना पुलिन कुंज गह्वर की, कोकिल ह्वै द्रुम कूक मचाऊँ।
पद-पंकज प्रिय लाल मधुप ह्वै, मधुरे-मधुरे गुंज सुनाऊँ॥

कूकुर ह्वै ब्रज बीथिन डोलौं, बचे सीथ रसिकन के पाऊँ।

'ललित किसोरी' आस यही मम, ब्रज रज तज छिन अनत न जाऊँ॥



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मोहन के अति नैन नुकीले




मोहन के अति नैन नुकीले।
निकसे जात पार हियरा, के, निरखत निपट गँसीले॥

ना जानौं बेधन अनियन की, तीन लोक तें न्यारी।

ज्यों ज्यों छिदत मिठास हिये में, सुख लागत सुकुमारी॥

जबसों जमुना कूल बिलोक्यो, सब निसि नींद न आवै।

उठत मरोर बंक चितवनियाँ उर उतपात मचावै॥

'ललित किसोरी' आज मिलै, जहवाँ कुलकानि बिचारौं।

आग लगै यह लाज निगोडी, दृग भरि स्याम निहारौं॥
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नैन चकोर~मुखचंद




नैन चकोर, मुखचंद कौं वारि डारौं,
वारि डारौं चित्तहिं मनमोहन चितचोर पै।

प्रानहूँ को वारि डारौं हँसन दसन लाल,

हेरन कुटिलता और लोचन की कोर पैर।

वारि डारौं मनहिं सुअंग अंग स्यामा-स्याम,

महल मिलाप रस रास की झकोर पै।

अतिहिं सुघर बर सोहत त्रिभंगी-लाल,

सरबस वारौं वा ग्रीवा की मरोर पै॥
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लजीले-सकुचीले~lalitkishori ji's bhaw





लजीले, सकुचीले, ससीले, सुरमीले से,
कटीले और कुटीले, चटकीले मटकीले हैं।

रूप के लुभीले, कजरीले उनमीले, बर-

छीले, तिरछीले से फँसीले औ गँसीले हैं॥

'ललित किसोरी' झमकीले, गरबीले मानौं,

अति ही रसीले, चमकीले औ रँगीले हैं।

छबीले, छकीले, अरु नीले से, नसीले आली,

नैना नंदलाल के नचीले और नुकीले हैं॥
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सुनो दिल जानी ~ताज बेगम~bhaw













सुनो दिल जानी मेरे दिल की जुबानी तुम ,दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मै|
देवपूजा ठानी मै निवाजहू भुलानी,ताजे कलमा-कुरान साडे गुननि गहुंगी मै ||
सांवला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिए,तेरे नेह दाग में निदाघ है दहुंगी मै |
नन्दके कुमार,कुरबान तेरी सूरत पे,हाँ तो मुगलानी हिन्दुवानी है रहूंगी मै ||

ताजबेगम
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गौर-श्याम बदनारबिंद










 गौर-श्यामबदनारबिंद पर जिसको बीर मचलतेदेखा |
नैन बान, मुसक्यानसंग फँसफिर नहिनेक सम्भलतेदेखा ||
ललितकिसोरी जुगल इश्कमें बहुतोका घरघलते देखा|
डूबा प्रेमसिन्धु काकोई हमनेनहीं उछलतेदेखा ||
देखौ री, यहनन्द काचोर बरछीमारे जाताहै |
बरछी-सी तिरछीचितवन कीपैनी छुरीचलाता है||
हमको घायल देखबेदरदी मंदमंद मुसुकाताहै |
ललितकिसोरी जखम जिगरपर नौनपुरीबुरुकता है||
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प्रेमसमुद्र रुपरस







प्रेमसमुद्र रुपरस गहिरे, कैसी लागैघाट |
बेकारयो दै जानिकहावत जानिपनोकी कहापरी बाट||
काहू को सरपरै सूधो, मारतगाल गलीगली हाट|
कहि हरिदास बिहारीहिजानौ, तकौ  औघट घाट||
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shri swami haridas ji's pad

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ब्रंदाबन सों बन उपबन सों,






मन लगाई प्रीतिकीजै करकरवा सों, ब्रजबीथिन दीजै सोहिनी |
ब्रंदाबन सों बनउपबन सों, गुंज मालकर पोहिनी||
गो गोसुतन सोंमृग मृगसुतनसों, औरतन नेक जोहिनी|
श्रीहरिदास के स्वामीश्यामा कुंजबिहारीसों, चितज्यों सिरपरदोहिनी ||
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काहूको बस नहीं तुम्हारी कृपा ते

  




काहूको बसनहीं तुम्हारीकृपा ते, सब होयबिहारी बिहारिनि|
और मिथ्या प्रपंचकाहे कोभाषिये, सोतो हैहारनि ||
जाहि तुमसो हितताहि तुमहित करो, सब सुखकारनि |
श्रीहरिदास के स्वामीश्यामा कुंजबिहारी,प्राननिके आधारनि|| 
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ज्योही ज्योही तुम




ज्योही ज्योही तुमराखत होत्योही त्योहीरहियतु हैहो हरि|
और अचरचै पाईधरो, सुतो कहोकौन केपैड भरि||
जदपि हों अपनोभयो कियोचाहो, कैसेकरि सकोजो तुमरखो पकरि|
कहि हरिदास पिंजराके जनावारलो, तरफराइ रह्योउडिबे कोकितो उकरि||
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हित तौ कीजै कमलनैन सों














हित तौ कीजैकमलनैन सों, जा हितआगे औरहित लागोफीको |
कै हित कीजैसाधुसंगतिसों, जावै कलमष जी को||
हरिको हित ऐसोजैसो रंग-मजीठ, संसर्हितकसुन्भी दिनदुतीको |
कहि हरिदास हितकीजै बिहारीसोंऔर निबाहु जानिजी को||
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