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Tuesday, August 21

युवा पीढ़ी

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युवा पीढ़ी
वृद्ध पीढ़ी विरोध में है और जवान पीढ़ी अनुभवहीन है। रास्ता कौन बनायेगा? रास्ता बनाने के लिए दो चीजों की जरूरत है-अनुभव की और शक्ति की। शक्ति जवान के पास है, अनुभव बूढ़े के पास है
आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर जाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने वाले साहस को ही युवा कहा जाता है। युवा एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही मन उमंगे भरने लगता है। उम्र का यही वह पड़ाव है जहां बैठकर बाकी जिदंगी की किस्मत तय की जाती है। असम्भव को संभव में बदलने वाले युवा शक्ति की तादाद भारत में सबसे ज्यादा है। देश में 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्रं के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। इस युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है। इनका जरा सा भी भटकाव देश की उन्नति को अवन्नित में बदल सकता है। युवाओ के बारे में ओशो कहते है, ''युवा होने का एक ही मतलब है-वैसी आत्मा विद्रोही की जो झुकना नहीं जानती, टूटना जानती है; जो बदलना चाहती है, जो जिंदगी को नई दिशाओं में, नये आयामों में ले जाना चाहती है, जो जिंदगी को परिवर्तन करना चाहती है। क्रांति की यह उद्याम आकांक्षा की युवा होने का लक्षण है।'' लेकिन सवाल यह है कि क्रांति की वह धधकती लौ आखिर है कहां?

आधुनिक समाज में मैटेरियलस्टिक होने की होड़ सी लगी हुई है। उसी दौड़ मे कहीं न कहीं युवा भी फंसता चला जा रहा है। पश्चिमीकरण के पहनावे और संस्कृति को अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं होती है। आज किशोर भी 14-15 वर्ष की आयु में ही ड्रग्स, और डिस्कों का आदी हो रहा है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति ने हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को जन्म दिया है। जिससे इस युवा शक्ति का कदम अधंकार की तरफ बढता हुआ दिख रहा है। देश के नौजवानों को सही राह दिखाना अति आवश्यक है। ताकि जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सके। वहीं सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि अपने महत्वाकांक्षाओ और दृढ़ निश्चय ने युवाओं का राजनीतिक और सामाजिक जीवन को भी ऊपर उठाया है।
ओशो कहते है, हमारा जवान मुश्किल में है, बहुत कठिनाई में है। और मेरी अपनी मान्यता है कि करूणा के योग्य है, क्रोध के योग्य नहीं। बहुत दया के योग्य है क्योंकि उसको कोई वसीयत नहीं छोड़ गया है। एक अर्थ में हमारा युवक अनाथ है। अनाथ इस अर्थों में कि उसकी जमीन की कोई वसीयत उसके पास नहीं है। उसकी पुरानी पीढ़ियां उसके लिए जीने योग्य, जिंदगी से रस निकालने योग्य, कोई भी तकनीक, कोई साइंस नहीं छोड़ गयी हैं। हां, उसे एक तरकीब बता दी है कि अगर तुम्हें मरना हो तो मोक्ष जाने का रास्ता है। अभी वह मरना नहीं चाहता है, वह जीना चाहता है-उसके लिए व्यर्थ है। इसलिए मंदिरों में, मस्जिदों में जवान दिखायी नहीं पड़ता। हां, लड़कियों वगैरह के खयाल से कोई जवान पहुंच गया हो तो बात अलग है। लेकिन मंदिर और मस्जिद के लिए जवान नहीं जाता, वहां बूढ़े इकटठे हो रहे हैं।
वहां बूढे क्यों दिखाई पड़ रहे है, उसका कारण है। उसका कारण है, बूढ़े की उत्सुकता बदल गयी। अब वह जिंदा रहने में उत्सुक नहीं है। अब वह ढंग से मरने में उत्सुक है। ठीक है, उसकी उत्सुकता गलत नहीं है। उसकी उत्सुकता की भी तृप्ति होनी चाहिए और उसके चिंतन को भी मार्ग मिलना चाहिए कि मृत्यु के बाद क्या है? लेकिन वह जवान का चिंतन नहीं है। तो हम कठिनाई में पड़ गये हैं। रास्ता नहीं है, रास्ता बनाना पड़ेगा।

कौन बनाएगा यह रास्ता? बड़ी जटिलता का सवाल है क्योंकि बूढ़े विरोध में है, वृद्व पीढ़ी विरोध में है और जवान पीढ़ी अनुभवहीन है। रास्ता कौन बनाएगा? रास्ता बनाने के लिए दो चीजों की जरूरत है-अनुभव की और शक्ति की। शक्ति जवान के पास है, अनुभव बूढ़े के पास है। उन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है। रास्ता बनेगा कैसे? रास्ता बनाने के लिए हिन्दुस्तान की बूढ़ी पीढ़ी को जवान के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होना पड़ेगा। अपने अनुभव से उसे सचेत करना पड़ेगा, जवान की शक्ति को नियोजित करना पडेगा। लेकिन बूढ़ी पीढ़ी निंदा में सलंग्न है। वह सिर्फ निंदा कर रही है वह सिर्फ गालियां दे रही है कि सब बिगड़ गये हैं। लेकिन यह कहने से कुछ फल नहीं होता। इससे अगर कोई बिगड़ भी गया हो तो उसे कोई सुधरने का मार्ग नहीं मिलता। अगर कोई न भी बिगड़ा हो तो बार-बार कहने से कि बिगड़ गया है, उसके चित्त में बिगड़ने की दिशा पैदा होती है।

नहीं, वृद्व पीढ़ी का बहुत ही कीमती समय यह है कि वह अपने सारे अनुभव पर ध्यान देकर भारत के लिए नया रास्ता बनाने में युवक की शक्ति का नियोजन कर सके। लेकिन यह तभी हो सकता है जब वृद्व-पुरानी पीढ़ी-नयी पीढ़ी की तरफ निंदा से न देखे, करूणा और प्रेम से देखे। लेकिन वृद्ध नाराज है। नाराज वह इसलिए है कि उसकी पुरानी सारी दुनिया अस्त-व्यस्त हो गयी है। नाराजगी का कारण दूसरा है। नाराजगी का कारण उसका अब तक का बनाया हुआ सारा ढांचा गिर गया है। जैसे मैं एक मकान बनाऊं और पूरा मकान गिर जाए और मैं अपने बेटे की पिटायी शुरू कर दूं। मेरा क्रोध तो उस मकान के गिर जाने के लिए है।
पुरानी संस्कृति का पूरा मकान गिर रहा है, गिर गया है। नाराजगी बेटे पर है। ऐसा लग रहा है कि ये बेटे मकान को गिराये दे रहे हैं। मकान, जैसा हमने बनाया था। हां बेटों ने अब तक उसे सहारा दिया था क्योंकि बेटों को हम बहुत जल्दी बूढ़ा बना देते हैं। अब बेटे उसको बचाने में सहायता नहीं दे रहे हैं। गिरा नहीं रहे, सिर्फ बचाने में सहायता नहीं दे रहे है। और बूढ़े हाथ कैसे किसी मकान को बचा सकते है? वह गिर रहा है। वे बेटों पर नाराज हैं। उस नाराजगी को छोड़ना पड़ेगा। और मेरी दृष्टि में अगर पिछली पीढ़ी नाराजगी को छोड़ दे तो नयी पीढ़ी उसके प्रति आदर से भर सकती है। जो निंदा करे उसके प्रति आदर नहीं हो सकता। नयी पीढ़ी उसके प्रति आदर से भर सकती है। जो निंदा करे उसके प्रति आदर नहीं हो सकता। नयी पीढी का आदर नहीं है पुरानी पीढ़ी के प्रति, क्योंकि पुरानी पीढ़ी सिवाय निंदा के और कुछ भी नहीं कर रही है।
-ओशो
पुस्तक: भारत के जलते प्रश्न
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