प्रेम जीवन का विशुद्ध रस । प्रेम माधुरी जी का सान्निध्य जंहा अमृत के प्याले पिलाए जाते है ।प्रेम माधुर्य वेबसाइट से हमारा प्रयास है कि इस से एक संवेदना जागृत हो ।

Tuesday, April 3

दिव्य प्रेम~श्रीप्रेममाधुरी जी






श्रीप्रेम माधुरीजी नित्य सत्य एक मात्र अपने प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की सुख विधाता  है।वे इतनी त्यागमयी है , इतनी मधुर-स्वभावा है कि अचिंत्यानंत गुण-गन की अनंत हो कर भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की अपेक्षा से सदा सर्व सद्गुण हीन  का अनुभव करती है । वे परिपूर्ण प्रेम प्रतिमा होने पर भी अपने में प्रेम का सर्वथा अभाव देखती है ।वे समस्त सौन्दर्य की एकमात्र निधि होने पर भी अपने को सौन्दर्य रहित मानती है और पवित्रतम सहज सरलता उनके स्वभाव की सहज वास्तु होने पर भी वे अपने में कुटिलता तथा दंभ के दर्शन करती और अपने को धिक्कार देती है ।वे अपनी एक अन्तरंग सखी से कहती है -
सखी री! हों  अवगुण की खान ।
तन गोरी, मन करी भरी,पातक पूरन प्रान ।।
नहीं त्याग रंचक मो मन में भर्यो अमित अभिमान ।
नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान ।।
जग के दुःख-अभाव सतावे, हो मन पीड़ा-भान ।
तब तेहि दुःख दृग स्त्रवे अश्रु जल, नही कछु प्रेम-निदान ।।
तिन दुःख अंसुवन कौ दिखरावो हौं सूचि प्रेम महँ ।
करू कपट, हिय-भाव दुरावौ, रचौ स्वांग स-ज्ञान ।। 

जब श्यामसुंदर  उनके प्रति अपनी प्रेम-कृतज्ञता का एक शब्द  भी उच्चारण कर बैठते अथवा दिव्य प्रेम का पात्र बनाने में अपने सौभाग्य-सुख का तनिक सा संकेत भी कर जाते तो श्रीराधाजी अत्यंत संकोच में पड़कर लज्जा के मारे गड़ सी जाती । एक बार उन्होंने श्यामसुंदर से रोते रोते कहा-
तुम से सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नही ।
अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मै कुछ भी दे सकी नहीं ।।
मेरी त्रुटी, मेरे दोषों को भी तुमने देखा नही  कभी ।
दिया सदा, देते न थके तुम. दे डाला निज प्यार सभी ।।
तब भी कहते-"दे न सका मै तुमको कुछ भी हे प्यारी ।
तुम-सी शीलगुणवती तुम ही, मै तुम पर बलिहारी "।
क्या मै कहू प्रान-प्रियतम से, देख लजाती अपनी ओर ।
मेरी हर करनी में ही तुम प्रेम देखते नंदकिशोर ।।
ऐसा दिव्य प्रेम है श्रीप्रेममाधुरी जी का ।





किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए किशोरीजी से क्षमा मांगते है ।
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